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भारत में समलैंगिक विवाह: क्या सरकार के विरोध के बावजूद सुप्रीम कोर्ट कानून को मंजूरी देगा?

Photo of रविकांत पारीक

Sunday March 12, 2023 , 4 min Read

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) 13 मार्च, सोमवार को भारत में समान-लिंग विवाह को वैध बनाने (legalising same-sex marriage in India) पर सुनवाई करने वाला है. भारत ने 2018 में समलैंगिकता (homosexuality) को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था.

7 सितंबर 2018 को, सुप्रीम कोर्ट की 5-जजों की संवैधानिक पीठ ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के हिस्से को अमान्य कर दिया, जिससे भारत में समलैंगिकता को कानूनी बना दिया गया.

हालाँकि भारत में समलैंगिक विवाहों की कानूनी स्थिति धार्मिक और सरकारी विरोध के साथ अस्पष्ट बनी हुई है.

सैम सेक्स मैरिज पर सरकार का रुख

केंद्र रविवार को सुप्रीम कोर्ट में एक फाइलिंग में अपने पहले के रुख पर अड़ा रहा कि समान-लिंग विवाह एक "भारतीय परिवार इकाई" की अवधारणा के अनुकूल नहीं है, जिसमें कहा गया है कि "एक पति, एक पत्नी और बच्चे हैं जो अनिवार्य रूप से एक 'पति' के रूप में एक बायोलॉजिकल पुरुष, एक 'पत्नी' के रूप में एक बायोलॉजिकल महिला और दोनों के मिलन से पैदा हुए बच्चों - जो कि बायोलॉजिकल पुरुष द्वारा पिता के रूप में और बायोलॉजिकल महिला को माँ के रूप में पाला जाता है.

सांकेतिक चित्र (freepik)

lgbtq-rights-homosexuality-legalising-same-sex-marriage-in-india-supreme-court-approve-law

भारत में समलैंगिक विवाह की कानूनी स्थिति

भारत में शादियां विषमलैंगिक (hetrosexual) जोड़ों- एक महिला और एक पुरुष द्वारा सख्ती से प्रतिबंधित हैं. भारत के कई धार्मिक समूहों द्वारा अनुकूलित, भारत में विवाह को हिंदू विवाह अधिनियम, ईसाई विवाह अधिनियम, मुस्लिम विवाह अधिनियम और विशेष विवाह अधिनियम के तहत वर्गीकृत किया गया है.

इनमें से कोई भी समलैंगिक जोड़े के बीच विवाह से संबंधित नहीं है.

भारत में LGBTQ लोगों के कानूनी अधिकारों को सबसे लंबे समय तक प्रतिबंधित कर दिया गया था. 2018 में, भारत ने समलैंगिकता के अपराधीकरण के औपनिवेशिक काल के कठोर कानून को पलटने का फैसला किया.

हालाँकि, क्वीर सदस्य भारत में समान अधिकारों के लिए जोर दे रहे हैं. संविधान के तहत अधिकारों के उनके दायरे में विस्तार सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया गया है, जिससे उम्मीद की कुछ झलक मिलती है कि शीर्ष अदालत 13 मार्च को भारत में समान लिंग विवाह को वैध कर सकती है.

यह उम्मीद सभी धार्मिक संप्रदायों के विरोध और केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के बावजूद बनी हुई है.

भारत में समलैंगिक विवाह कानून पर अब तक एक नज़र

2014 में, सुप्रीम कोर्ट ने नॉन-बाइनरी या ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को "थर्ड जेंडर" के रूप में कानूनी मान्यता दी.

2017 में, इसने निजता के अधिकार को मजबूत किया, और यौन अभिविन्यास (sexual orientation) को किसी व्यक्ति की निजता और गरिमा के एक आवश्यक गुण के रूप में भी मान्यता दी.

2018 में, इसने समलैंगिक यौन संबंध को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया - एक ब्रिटिश औपनिवेशिक युग के कानून को पलट दिया - और LGBTQ लोगों के लिए संवैधानिक अधिकारों का विस्तार किया.

2022 में, शीर्ष अदालत ने "एटिपिकल" परिवारों के लिए सुरक्षा की स्थापना की. यह एक व्यापक श्रेणी है, जिसमें शामिल हैं, उदाहरण के लिए, एकल माता-पिता, मिश्रित परिवार या रिश्तेदारी संबंध - और समान-लिंग वाले जोड़े. अदालत ने कहा कि इस तरह के गैर-पारंपरिक विभिन्न सामाजिक कल्याण कानूनों के तहत परिवारों की अभिव्यक्तियाँ समान रूप से लाभ के पात्र हैं.

ऐसे देश जहां सेम सेक्स मैरिज लीगल है

2022 के अंत तक, दुनिया भर के 30 देशों में समलैंगिक विवाह की संस्था कानूनी थी. हालाँकि, ये ज्यादातर पश्चिमी यूरोप और अमेरिका के देश हैं.

एशिया में केवल ताइवान समलैंगिक विवाह की अनुमति देता है.

हर जगह एशियाई डायस्पोरा के भीतर सेम सेक्स मैरिज का दृष्टिकोण विवादित है.

ब्लूमबर्ग के एक लेख ने पुष्टि की है कि हांगकांग घर में सेम-सेक्स मैरिज की अनुमति नहीं देता है, लेकिन उदाहरण के लिए, प्रवासी श्रमिकों के समान-लिंग वाले पति-पत्नी को आश्रित वीजा प्रदान करेगा.

थाईलैंड नागरिक संघों के लिए मान्यता की ओर बढ़ रहा है.

अन्य स्थान अधिक प्रतिबंधात्मक हो गए हैं: इंडोनेशिया, जो समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देता है, ने हाल ही में सभी विवाहेतर यौन संबंधों पर प्रतिबंध लगा दिया है; सिंगापुर की संसद ने पुरुषों के बीच सेक्स पर लगे प्रतिबंध को हटाते हुए एक कानून पारित किया है, लेकिन विवाह समानता की ओर एक रास्ता अवरुद्ध कर दिया है.

यदि भारत की अदालत सेम सेक्स मैरिज को मंजूरी देती है, तो देश LGBTQ जोड़ों के लिए ऐसे अधिकारों वाले सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में अमेरिका को पछाड़ देगा.

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समलैंगिक विवाह: समानता के लिए संघर्ष

  • 01 May 2023
  • 16 min read
  • ट्रांसजेंडर से संबंधित मुद्दे
  • मौलिक अधिकार
  • सामान्य अध्ययन-II

यह एडिटोरियल 28/04/2023 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “Derek O’Brien on same-sex marriage: Queer Indians fighting the good fight” लेख पर आधारित है। इसमें समलैंगिक विवाह और समलैंगिक युगलों के लिये विवाह के उस अधिकार के बारे में चर्चा की गई है जो अन्य नागरिकों को पहले से उपलब्ध है।

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act- SMA) के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग करने वाली याचिकाओं की एक शृंखला पर सुनवाई शुरू की है। वर्ष 1954 का विशेष विवाह अधिनियम उन युगलों के लिये विवाह का नागरिक स्वरूप प्रदान करता है जो अपने व्यक्तिगत कानून (personal law) के तहत विवाह नहीं कर सकते।

  • कार्यवाही में केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय को सलाह दी है कि मामले को संसद को संदर्भित किया जाए जहाँ यह तर्क दिया गया है कि समलैंगिक विवाह को अनुमति देने के लिये कानून को पुनः संशोधित नहीं किया जा सकता है।
  • इस संदर्भ में समलैंगिक विवाह के विषय और इससे संबद्ध मुद्दों पर विचार करना हमारे लिये प्रासंगिक होगा।

समलैंगिक विवाह के विपक्ष में तर्क

  • विवाह की धार्मिक परिभाषाएँ: विभिन्न धर्मों में पारंपरिक रूप से विवाह को एक पुरुष और एक स्त्री के बीच का बंधन माना जाता रहा है। विशेष विवाह अधिनियम, 1954 धार्मिक व्यक्तिगत कानूनों की सीमाओं को दूर करने के लिये लाया गया था, न कि विवाह की एक नई संस्था के निर्माण के लिये।
  • कब शादी करनी है, कितनी बार शादी करनी है, किससे शादी करनी है, कैसे अलग होना है और पशुगमन या व्यभिचार (bestiality or incest) पर कानून को विनियमित करने के लिये राज्य अपने वैध हित का दावा कर सकता है।
  • हालाँकि, यह निजिता भले अस्तित्व में है, इसे विवाह तक विस्तारित नहीं किया जा सकता जिससे एक आवश्यक सार्वजनिक तत्व संबद्ध होता है। वयस्कों के बीच सहमतिपूर्ण यौन संबंध निजी होते हैं, लेकिन विवाह का एक सार्वजनिक पहलू होता है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
  • संसद द्वारा विधान का निर्माण: केवल संसद के पास समलैंगिक विवाह पर निर्णय लेने का अधिकार है क्योंकि यह लोकतांत्रिक अधिकार का मामला है और न्यायालय को इस संबंध में कानून निर्माण की राह पर आगे नहीं बढ़ना चाहिये। कानून में संभावित अनपेक्षित परिणाम सन्निहित हो सकते हैं और इसमें LGBTQIA+ समुदाय (जिसमें 72 श्रेणियाँ हैं) के अंतर्गत आने वाले लिंगों के विभिन्न क्रमचय एवं संचय से निपटने की जटिलता भी शामिल है।
  • यह कानून पत्नी को कुछ विशिष्ट अधिकार प्रदान करता है, जैसे कानून कहता है कि पत्नी शादी के बाद पति का अधिवास प्राप्त करती है; इस परिदृश्य में फिर प्रश्न है कि समलैंगिक विवाह में पत्नी कौन होगी?
  • तलाक का मुद्दा: विशेष विवाह अधिनियम के तहत एक पत्नी इस आधार पर तलाक की मांग कर सकती है कि उसका पति बलात्कार, सोडोमी या पशुगमन का दोषी है।
  • बच्चों को गोद लेने संबंधी मुद्दे: क्वियर युगल द्वारा बच्चों को गोद लेने के मामले में सामाजिक कलंक, भेदभाव और बच्चे के भावनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक कल्याण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने जैसे परिदृश्य उत्पन्न हो सकते हैं, विशेष रूप से ऐसे भारतीय समाज में जहाँ LGBTQIA+ समुदाय को सार्वभौमिक स्वीकृति प्राप्त नहीं है।
  • लैंगिक शब्द: यह तर्क भी दिया जाता है कि ‘माँ’ और ‘पिता’, ‘पति’ और ‘पत्नी’ जैसे लैंगिक शब्द समलैंगिक विवाहों में समस्याजनक होंगे।

समलैंगिक विवाह के पक्ष में तर्क

  • मानव जाति के लिये खतरे की धारणा: समलैंगिक विवाह का यह कहकर विरोध करना कि यह मानव जाति को समाप्त कर देगा, अनुचित है, क्योंकि बच्चे पालने की इच्छा रखने वाले समलैंगिक युगलों के लिये गोद लेने का समाधान मौजूद है।
  • अभिजात्य अवधारणा का आरोप: विवाह समानता की मांग आर्थिक रूप से कम विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की ओर से की जाती है जिन्हें कानूनी सुरक्षा की आवश्यकता होती है। यह दावा करना कि यह शहरी अभिजात वर्ग का मामला है, भ्रामक है। उदाहरण के लिये, लीला और उर्मिला का मामला (जहाँ इन दो पुलिसकर्मियों को वर्ष 1987 में विवाह करने के लिये निलंबित कर दिया गया था और जेल में डाल दिया गया था) समाज में LGBTQIA+ लोगों द्वारा सामना किये जाने वाले भेदभाव को दर्शाता है।
  • विशेष विवाह अधिनियम ने वर्ष 2006 में एक बंगाली हिंदू और एक एंग्लो-इंडियन रोमन कैथोलिक को शादी करने की अनुमति दी थी और उन्हें उम्मीद है कि इस कानून का विस्तार क्वियर भारतीयों के लिये भी किया जाएगा।
  • न्यायाधीशों ने सुझाव दिया था कि कुछ लाभों की प्राप्ति के लिये ऐसे संबंधों को मान्यता देना आवश्यक है, लेकिन विवाह के रूप में मान्यता देना आवशयक नहीं है। CJI ने ऐसे संबंधों में शामिल लोगों के लिये सुरक्षा और सामाजिक कल्याण की भावना प्रदान करने के महत्त्व पर बल दिया था।
  • न्यायालय ने ‘विवाह’ के बजाय ‘कॉन्ट्रैक्ट’ या ‘पार्टनरशिप’ जैसे लेबल का सुझाव दिया। सरकार ने यह कहा कि समलैंगिक संबंधों को विवाह के रूप में मान्यता देने की मांग करने का कोई मूल अधिकार नहीं है।
  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिक युगलों के लिये सह-वास को मूल अधिकार के रूप में मान्यता देने पर विचार किया, जो उन्हें कथित ‘विवाह’ में होने के बिना भी लाभ का हक़दार बनाएगा।
  • सरकार को समलैंगिक युगलों के समक्ष विद्यमान व्यावहारिक समस्याओं का समाधान करना चाहिये, जैसे कि संयुक्त बैंक खाते रखना और पेंशन एवं ग्रेच्युटी की पात्रता।
  • यह भारतीय समाज के पारंपरिक मूल्यों और मान्यताओं के विरुद्ध जाता है। हालाँकि, समलैंगिक विवाह की मान्यता समाज में विद्यमान संबंधों की विविधता में और योगदान करेगी।
  • मानवीय गरिमा: नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिक युगलों को एक गरिमापूर्ण निजी जीवन जीने की स्वतंत्रता प्रदान की।
  • ‘बायोलॉजिकल जेंडर’ स्वयं में ‘पूर्ण’ नहीं है: भारत के सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि ‘बायोलॉजिकल जेंडर’ स्वयं में ‘पूर्ण’ या परम (absolute) स्थिति नहीं है और ‘लिंग’ या जेंडर महज जननांग विशेष के अर्थ तक सीमित नहीं है। पुरुष या महिला की कोई पूर्ण अवधारणा नहीं है (‘‘no absolute concept of a man or a woman’’)।
  • ‘अधिकारों की श्रेणियों’ से वंचित किया जाना: LGBTQIA+ समुदाय को विवाह करने की अनुमति न देकर उन्हें कर लाभ, चिकित्सा अधिकार, उत्तराधिकार और गोद लेने जैसे कई महत्त्वपूर्ण कानूनी लाभों से वंचित किया जा रहा है। विवाह केवल गरिमा का प्रश्न नहीं है, बल्कि अधिकारों का एक संग्रह भी है।
  • जागरूकता बढ़ाना: जागरूकता अभियानों का उद्देश्य सभी यौन उन्मुखताओं की समानता एवं स्वीकृति को बढ़ावा देना और LGBTQIA+ समुदाय के बारे में लोक धारणा का विस्तार करना है।
  • कानूनी सुधार: विशेष विवाह अधिनियम में संशोधन किया जाना चाहिये ताकि समलैंगिक युगलों को कानूनी रूप से विवाह करने और अन्य नागरिकों के समान अधिकारों एवं लाभों का उपभोग करने की अनुमति मिल सके। इस दौरान अनुबंध जैसे समझौते लाए जाएँ ताकि समलैंगिक लोग विषमलैंगिकों की तरह समान अधिकारों का उपभोग कर सकें।
  • संवाद और संलग्नता: धार्मिक नेताओं और समुदायों के साथ संवाद में संलग्न होने से समलैंगिक संबंधों के प्रति पारंपरिक मान्यताओं और आधुनिक दृष्टिकोण के बीच की खाई को पाटने में मदद मिल सकती है।
  • कानूनी चुनौतियाँ: भारतीय LGBTQIA+ समुदाय समलैंगिक विवाह को रोकने वाले मौजूदा कानूनों की संवैधानिकता को न्यायालय में चुनौती दे सकता है। इस तरह की कानूनी चुनौतियाँ एक विधिक मिसाल स्थापित करने में मदद कर सकती हैं जो समलैंगिक विवाह के वैधीकरण का मार्ग प्रशस्त करेगी।
  • समलैंगिक विवाह को वैध बनाने के लिये LGBTQIA+ समुदाय, सरकार, नागरिक समाज और धार्मिक नेताओं सहित सभी हितधारकों की ओर से ठोस प्रयास की आवश्यकता है। एक साथ कार्य कर हम एक अधिक समावेशी समाज का निर्माण कर सकते हैं जहाँ हर किसी को अपनी लैंगिकता की परवाह किये बिना अपनी पसंद से प्यार करने और विवाह करने का अधिकार होगा।

अभ्यास प्रश्न: समलैंगिकता और समलैंगिक विवाह के वैधीकरण के संबंध में भारत में LGBTQIA+ समुदाय के समक्ष विद्यमान चुनौतियों की चर्चा करें। देश के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य पर इसकी कानूनी मान्यता के प्रभाव का विश्लेषण करें।

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कानून और परंपराः समलैंगिक विवाह पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला

अदालत के फैसले से समलैंगिक लोगों को समानता के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ेगा.

Published - October 18, 2023 09:31 am IST

सुप्रीम कोर्ट का समान लिंग के व्यक्तियों के बीच शादी को कानूनी मान्यता देने से इनकार करना, देश के समलैंगिक समुदाय के लिए बड़ा कानूनी धक्का है। हाल के वर्षों में कानून में हुई प्रगति और व्यक्तिगत अधिकारों के गहरे होते अर्थ को देखते हुए, व्यापक रूप से यह उम्मीद थी कि पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ विशेष विवाह अधिनियम (कोई भी दो लोगों को शादी की इजाजत देने वाला कानून) की लिंग-निरपेक्ष व्याख्या करेगी, ताकि समान लिंग के लोगों को इसमें शामिल किया जा सके। समय के साथ, निजता, गरिमा और वैवाहिक पसंद के अधिकारों को समाहित करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 21 का आयाम विस्तृत किया गया है। लेकिन, सर्वोच्च अदालत ने एक अतिरिक्त कदम उठाने से खुद को रोक लिया है, जिसकी जरूरत वैसे विवाहों या विवाह जैसे कानूनी बंधनों (सिविल यूनियन) की इजाजत देने के लिए थी जो विपरीत-लिंगी नहीं हैं। सभी पांच न्यायाधीशों ने इस तरह का कानून बनाने का काम विधायिका पर छोड़ना चुना है। भारत के प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस संजय किशन कौल ने फैसला दिया है कि समलैंगिक जोड़ों को अपने मिलन (यूनियन) के लिए मान्यता हासिल करने का अधिकार है, लेकिन साथ ही विशेष विवाह अधिनियम के उस आशय के प्रावधानों में काट-छांट करने (रीड डाउन) से इनकार किया है। दूसरी तरफ, न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट्ट, हिमा कोहली और पी.एस. नरसिम्हा ने इस नजरिए को खारिज किया है और कहा है कि कोई भी ऐसी मान्यता विधायिका द्वारा बनाये गये कानून पर ही आधारित हो सकती है। यानी, अदालत ने सरकार के इस दृष्टिकोण को स्वीकार किया है कि समलैंगिक शादियों को कानूनी बनाने का कोई भी कदम विधायिका के अधिकार-क्षेत्र में आयेगा।

यह निष्कर्ष निकालते हुए कि विवाह का अधिकार कोई मौलिक अधिकार नहीं है, अदालत ने इस उम्मीद को खारिज कर दिया है कि वह विवाह के मामले में समलैंगिक जोड़ों के साथ भेदभाव जारी रखने की इजाजत नहीं देगी। विवाह वास्तव में एक सामाजिक संस्था है, और एक वैध विवाह के लिए अपनी कानूनी जरूरतें और शर्तें हैं। विवाह के जरिए सामाजिक और कानूनी वैधता हासिल करने का अधिकार व्यक्तिगत पसंद का मामला है जिसे संविधान से संरक्षण प्राप्त है, लेकिन शीर्ष अदालत अब भी इसे विधायिका द्वारा बनाये गये कानूनों की सीमाओं के अधीन ही मानती है। बहुमत इस नजरिए के पक्ष में नहीं है कि समलैंगिक जोड़ों को बच्चे गोद लेने का अधिकार है, लेकिन इस बात पर अल्पमत से सहमत है कि परालिंगी (ट्रांस) व्यक्तियों के विपरीत-लिंगी वैवाहिक संबंध में प्रवेश करने पर कोई रोक नहीं है। न्यायाधीशों के बीच इस बात पर कोई असहमति नहीं है कि ऐसे समलैंगिक जोड़ों को साथ रहने और उत्पीड़न व धमकियों से मुक्त होने का अधिकार है। यह देखते हुए कि भारतीय आबादी का बड़ा हिस्सा समलैंगिक शादियों को कानूनी बनाये जाने का धार्मिक और सांस्कृतिक आधार पर विरोध कर सकता है, संसद द्वारा ऐसी कोई पहल किये जाने की संभावना बहुत कम है। एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय अब खुद को अदालत के इस निर्देश से दिलासा दे सकता है कि सरकार को समलैंगिक जोड़ों के अधिकारों व हकदारियों पर निर्णय के लिए एक कमेटी बनानी चाहिए। हालांकि, इस समुदाय को आगे काफी संघर्ष करना होगा जब तक कि समानता की उसकी ललक के साथ कानून एकाकार नहीं हो जाता है।

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  • विचार एवं विश्लेषण

समलैंगिक विवाह पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की 6 बड़ी बातें, धर्मसंकट से बच गया समाज

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि हम समलैंगिक विवाह (same sex marriage) के लिए कानून नहीं बना रहे हैं. लेकिन, इस फैसले के बावजूद पांच में से 4 जजों ने अपना अपना फैसला सुनाते हुए इस मुद्दे के अहम पहलुओं पर सुप्रीम कोर्ट की राय साझा की. आइये, इस फैसले के परिप्रेक्ष्‍य में केंद्र की आपत्तियों और समलैंगिक विवाह को लेकर समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को समझते हैं....

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समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्‍यता देने की याचिका कर रही सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अपना फैसला सुना दिया है. इस पीठ के 5 में से 4 जजों ने बारी-बारी से अपना फैसला सुनाया. सबसे पहले CJI डीवाय चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में समलैंगिकों को शादी का अधिकार देने की बात पर जोर दिया. इसके अलावा उन्‍होंने समलैंगिकों के साथ होने वाले भेदभाव को दूर करने को लेकर निर्देश भी जारी किये. सुप्रीम कोर्ट बेंच के चारों जजों के फैसलों का लब्‍बोलुआब देखा जाए तो:

- किसी भी तरह का कानून बनाने का अधिकार संसद का है, इसलिए समलैंगिक विवाह पर कानून बनाने के लिए भी वहीं विचार होना चाहिए.

- सॉलिटर जनरल ने सुनवाई के दौरान कहा था कि य‍दि जरूरी हुआ तो संसद इस बारे में एक उच्‍चस्‍तरीय समिति बनाकर विचार करेगी. सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील के प्रति सहमति दिखाई.

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समलैंगिक विवाह मामले में सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है. (फाइल फोटो)

'संवैधानिक अधिकार नहीं है शादी,' सेम सेक्स मैरिज मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी 

समलैंगिक विवाह के विरोध में केंद्र ने कई दलीलें दीं हैं. (फाइल फोटो-PTI)

सेम सेक्स मैरिज पर क्या-क्या दलीलें दे रही केंद्र सरकार? SC ने पूछी ये बात... जानें सबकुछ 

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़

'पूरे समर्पण से देश की सेवा की, इतिहास कैसे याद करेगा यह सोचकर चिंतित हूं', बोले CJI डी वाई चंद्रचूड़  

- भारतीय संविधान में शादी का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है, लेकिन रिलेशनशिप को मान्‍यता दी गई है. इसलिए यदि कोई समलैंगिक जोड़ा अपने रिश्‍ते को किसी भी प्रकार से प्रकट करने के लिए स्‍वतंत्र है.

- बच्‍चा गोद लेने के अधिकार को लेकर CJI और जस्टिस भट्ट के बीच काफी मतांतर दिखा. CJI इसके पक्ष में थे, जबकि जस्टिस भट्ट ने इसका विरोध किया (जस्टिस भट्ट ने इसकी वजह को पढ़ने से मना कर दिया).

- समलैंगिक विवाद को कानूनी मान्‍यता देने से महिलाओं पर इसके दुष्‍प्रभाव पड़ने की बात रेखांकित हुई. जस्टिस भट्ट ने कहा कि अभी घरेलू हिंसा और दहेज से जुड़े कानूनों में महिला के रूप में पत्‍नी को काफी अधिकार हैं, जो खतरे में पड़ सकते हैं. 

- समलैंगिकों के साथ किसी भी तरह के भेदभाव को दूर करने के मुद्दे पर सभी जस्टिस एकमत थे. और  CJI चंद्रचूड़ ने इसके लिए विस्‍तृत दिशा निर्देश जारी किये.

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 11 मई को फैसला सुरक्षित रख लिया था. चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पांच जजों की संवैधानिक पीठ इस मामले में 18 अप्रैल से सुनवाई शुरू की थी. सवाल यह है कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में गे राइट्स विशेषकर शादी के अधिकारों को लेकर विरोध क्यों कर रही थी? अगर विरोध कर रही थी तो उसके तर्क क्या थे? और उन तर्कों के आधार पर यदि समाज के पड़ने वाले प्रभाव को देखा जाए तो किस उथल-पुथल की आशंका जताई गई थी.

1-पति और पत्नी के अलग-अलग राइट्स हैं, पर कैसे पता चलेगा, कौन पति-कौन पत्नी?

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान केंद्र की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कुछ पॉइंट्स ऐसे रखे थे जो निश्चित तौर पर समाज में बड़े पैमाने पर समस्या का कारण बन सकते हैं. दरअसल सेम सेक्स मैरिज में यह समझना कठिन होगा कि कौन पति है तो कौन पत्नी है. इसलिए बहुत से ऐसे कानून जो महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए बनाए गएं हैं उनपर एक्शन कैसे होगा यह सरकार के लिए चिंता का विषय है. जैसे सेम सेक्स मैरिज के बाद अगर तलाक की नौबत आती है तो कानून कैसे काम करेगा? विशेष वर्ग में तलाक का कानून भी सभी लोगों के लिए एक बन सकता है? ट्रांस मैरिज में पत्नी कौन होगा? गे मेरिज में कौन पत्नी होगा? इसका दूरगामी प्रभाव होगा. अभी जो कानून प्रचलन में है उसमें पत्नी गुजारा भत्ता मांग सकती है, लेकिन समलैंगिक शादियों में क्या होगा? कैसे निर्धारित होगा कौन पति है कौन पत्नी है?   महिलाओं के अधिकारों की चर्चा करते हुए मेहता कहते रहे कि दहेज हत्या या घरेलू हिंसा के मामले जटिल हो जाएंगे. 'अगर कानून में पति या पत्नी की जगह सिर्फ स्पाउस या पर्सन कर दिया जाए, तो महिलाओं को सूर्यास्त के बाद गिरफ्तार न करने के प्रावधान कैसे लागू होंगे?' 

3-अनैतिक संबंधों में छूट की होगी डिमांड

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने एक बहुत सेंसिटिव मुद्दे को उठाया था. उन्होंने सेम सेक्स मैरिज को मौलिक अधिकार बताए जाने को बेहद जटिल बताया था. मेहता ने कहा था कि सेम सेक्स मैरिज को मान्यता के दावे को मौलिक अधिकार समझकर अगर सही माना जाए तो भविष्य में और बहुत से नैसर्गिक अधिकारों की डिमांड शुरू हो जाएगी.समाज में नजदीकी वर्जित संबंध जैसे नियम परंपराएं मानव समाज की ही बनाई हुई हैं. मेहता कहते हैं कि सेक्सुअल ओरिएंटेशन और पसंद के अधिकार के दावे शुरू हो सकते हैं. दरअसल पसंद के अधिकार और सेक्सुअल ओरिएंटेशन के मामले को याचिकाकर्ता ने उठाया है और सेम सेक्स में इसी आधार पर शादी की मान्यता की गुहार लगाई है. मेहता का कहना है कि इसी आधार पर आने वाले समय में तो वर्जित संबंधों में रिलेशनशिप के मामलों को पसंद का मामला बताया जाएगा. और सेक्सुअल ओरिएंटेशन का मामला बताकर राइट्स की मांग की जाएगी.

2-समाज सुधार का हक समाज को है

देश में समाज सुधार का इतिहास बहुत पुराना है. सती प्रथा और विधवा विवाह के लिए बंगाल में जबरदस्त अभियान चला.बाल विवाह की उम्र बढ़ाने की बात हो या कोई बड़े सामाजिक बदलाव लाने वाले हर कदम पर बड़े पैमाने पर समाज में बहस हुई है.विधवा पुनर्विवाह के मुद्दे पर बंगाल में खूब बवाल हुआ था.महिलाओं की शादी की उम्र घटाने और एज ऑफ कंसेंट बिल को लेकर बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले अलग-अलग खेमों में बंट गए. 

बंगाल में राधाकांत देब और महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक, स्वामी विवेकानंद, श्री अरबिंदो और महात्मा गांधी चाहते थे कि विदेशी शासक भारत की जनता के प्रतिनिधि नहीं हैं और हिंदू रीति-रिवाजों के बारे में कानून बनाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं मिलना चाहिए. इनका कहना था कि बुद्ध, आदि शंकराचार्य, गुरु नानक और ज्योतिबा फुले जैसे महान समाज सुधारकों ने अपने संदेश समाज सुधार का आगे बढ़ाया.

प्रसिद्ध पत्रकार स्वप्नदास गुप्ता एक लेख में लिखते हैं कि समलैंगिकों की शादी को कानूनी दर्जा देने के बारे में देश में सार्वजनिक बहस कराने के लिए कोई खास कोशिश होती नहीं दिखी.उनका कहना है कि LGBTQIA++ कम्युनिटी भले ही इस पर चर्चा कर रही हो, लेकिन प्रस्तावित बदलावों से जिस तरह का बड़ा असर पड़ने वाला है, उसे देखते हुए कोई बड़ी सामाजिक बहस होती चाहिए थी.गुप्ता कहते हैं कि जो भी चर्चा है, वह दिल्ली की कानूनी बिरादरी के एक छोटे से तबके में और इंग्लिश मीडिया में दिख रही है. भारत लोकतांत्रिक संविधान से चलता है, ऐसे में यह मानना कि इंडियन स्टेट सेम सेक्स मैरिज जैसे विषय पर फैसला करने लायक नहीं है, एक मजाक ही है.

4- मनचले लोगों को बहाना मिल जाएगा

समाज में ऐसे लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है जिनका सेक्सुअल ओरिएंटेशन कुछ समय बाद बदल जाया करता है. तमाम राजा महाराजाओं, मुगल शासकों का इतिहास बताता है कि इन्होंने शादी भी की , उनसे बच्चे भी हुए और इनके संबंध सेम सेक्स वाले से भी रहे. बॉलीवुड हो या भारतीय राजनीति , बिजनेस वर्ल्ड हो या फैशन संसार हर जगह इस तरह के किस्से आम हैं. बीस साल सफल वैवाहिक जीवन के बाद अगर किसी का सेक्सुअल ओरिएंटेशन बदलता है तो इसे क्या कहा जाएगा? 

सेक्सुअल ओरिएंटेशन बदलने की घटनाएं बड़े लोगों में ही नहीं छोटे कस्बों और गांवों में भी देखने की मिलती है.यहां बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो दोनों तरह के संबंधों में हैं. इनमें महिलाएं और पुरुष दोनों ही शामिल हैं. तमाम ऐसी महिलाएं हैं जिनके कई बच्चे होने के बाद वो सेम सेक्स रिलेशनशिप में है. कानून बनाने से पहले जनता को ये फैसला करने की सुविधा देनी होगी जिससे पता लगाया जा सके कि कोई व्यक्ति शारीरिक रूप से विपरीत लिंग के साथ आकर्षित है या सेम सेक्स के लिय़े. इस तरह का कानूनी अधिकार मिलने से निश्चित रूप से अरबल इलिट को ही फायदा मिलने वाला है. 

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Same Sex Marriage LIVE: सुप्रीम कोर्ट का फैसला- समलैंगिक विवाह को कानूनी वैधता नहीं, 3-2 के अंतर से आया निर्णय

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सिर्फ कानून बनाकर ही दिया जा सकता है समलैंगिकों को विवाह का अधिकार

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